देश-विदेश से दून पहुंचती हैं संगत, अटूट आस्था की वजह है झंडे जी मेले का ये इतिहास

उत्तराखंड देहरादून

झंडा मेला ( फाइल फोटो)

देवेंद्र दास महाराज ने संगतों को बताया कि श्री झंडेजी मेले का इतिहास देहरादून के अस्तित्व से जुड़ा है। श्री गुरु राम राय महाराज का दून में आगमन 1676 में हुआ था। उन्होंने यहां के प्राकृतिक सौंदर्य से मुग्ध होकर ऊंची-नीची पहाड़ियों पर जो डेरा बनाया, उसी जगह का नाम डेरादीन से डेरादून और फिर देहरादून हो गया।

उन्होंने इस धरती को अपनी कर्मस्थली बनाया। उन्होंने श्री दरबार साहिब में लोक कल्याण के लिए एक विशाल झंडा देहरादून के मध्य स्थान में (बीच में) में लगाकर लोगों को इसी ध्वज से आशीर्वाद प्राप्त करने का संदेश दिया। इसी के साथ श्री झंडा साहिब के दर्शन की परंपरा शुरू हो गई।

श्री गुरु राम राय महाराज को देहरादून का संस्थापक कहा जाता है। गुरु राम राय महाराज सिखों के सातवें गुरु गुरु हर राय के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनका जन्म होली के पांचवें दिन वर्ष 1646 को पंजाब के जिला होशियारपुर (अब रोपड़) के कीरतपुर में हुआ था।

महंत देवेंद्र दास महाराज ने कहा कि मेले हमारे देश की विरासत और धरोहर हैं। मेलों में देश-विदेश के लोग एकजुट होकर अपनी कला, संस्कृति व संस्कारों का आदान प्रदान करते हैं। मेले हमें जोड़ने का कार्य करते हैं, आपसी सद्भाव और भाईचारे को बढ़ाने का काम करते हैं।

श्री झंडेजी मेले में देश-विदेश से संगत बड़ी संख्या में श्री दरबार साहिब पहुंच रही हैं। शुक्रवार को दरबार साहिब में पहुंचीं संगतों को महंत देवेंद्र दास महाराज ने श्री गुरु राम राय महाराज के बताए रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने गुरु राम राय महाराज के जीवन से जुड़े संस्मरण भी साझा किए।

वहीं, महिलाएं सुबह से ही गिलाफ सिलाई के काम में जुटी थीं। श्री गुरु राम राय महाराज के जयकारों व भजनों के साथ गिलाफ सिलने का काम देर शाम तक पूरा कर लिया गया। श्री झंडेजी पर तीन तरह के गिलाफों का आवरण होता है। सबसे भीतर की ओर सादे गिलाफ चढ़ाए जाते हैं।

इनकी संख्या 41 होती है। मध्यभाग में शनील के गिलाफ चढ़ाए जाते हैं, इनकी संख्या 21 होती है। सबसे बाहर की ओर दर्शनी गिलाफ चढ़ाया जाता है। इसकी संख्या एक होती है। इस वर्ष जालंधर के संसार सिंह के परिवार को दर्शनी गिलाफ चढ़ाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

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